Friday 26 December 2014

आने वाले तेरा स्वागत !

आने वाले तेरा स्वागत !

नवल सूर्य की बंकिम किरणे 
करती  तेरा फिर-फिर अभिनन्दन। 
आने वाले तेरा स्वागत !

                       नई कोंपलें, नाजुक डंठल 
                      नई उमंगें, नव जीवन रस
                       पात-पात तेरा अभिरंजित 
                      अभिसिंचित हो ओस कणों से 
                      कली- कुमुद बन तूँ खिल जा रे !
                      खुशबू से इस धरा गगन को 
                      जीवन भर- दम भर महका रे!

चन्द्र- चाँदनी इठलाती सी 
जोहे तेरी राह ठिठककर। 
आने वाले तेरा स्वागत। 

                      तूँ  आना बन बरखा पावन 
                      बूँद बूँद हो तेरा शीतल 
                       सूखी धरती के अंतर को 
                      प्यासे जन के पीड़ित मन को 
                      नेह नीर सिंचित कर जा रे ! 
                      निज समर्थ्य भर जन-मन के तूँ 
                      ताप  मिटा -संताप मिटा रे !

मन मयूर सा पंख पसारे 
तुझे पुकारे आकुल हो कर। 
आने वाले तेरा स्वागत !

                      साहस लेकर जग में आना 
                      दुःख में सुन तूँ मत घबराना 
                      संघर्षों के समर भूमि में 
                      जीवन तुझे पुकारे प्रतिपल -
                      आता हूँ आवाज लगा रे !
                      सहज भाव से हर सुख दुःख को 
                      आगे बढ़ कर गले लगा रे !

हार जीत से परे जगत में 
जीवन लौ हो तेरा जगमग
आने वाले तेरा स्वागत !

Saturday 13 December 2014

वो खाली समय


मुझे समय मत दो...

वो खाली समय
जब मेरे पास करने को कुछ न हो,
सोंचने को कुछ न हो। 
जब मेरे इस ऊपरी
बाहर से ओढ़े हुए सतह में
कोई हलचल न हो। 
जब वर्तमान परिस्थितियों,
आवश्यकताओं
और कर्तव्यों का नशा,
उसका खुमार
टूटने लगे .…

मैं आप ही अपने अंदर उतरने लगता हूँ;
वहाँ मुझे मिलता है -
एक धुंधला कब्रिस्तान
जहाँ ताबूतों में दफ़्न हैं
मेरे ख्वाबों के मृत शरीर
जहाँ पंख कटे फड़फड़ा रहे हैं
मेरी उम्मीदें, मेरी हशरतें।
वहाँ मुझसे मिल जाते हैं
फर्श पर यूँ ही चकनाचूर हो बिखरे पड़े कई रिश्ते
जो कभी शीशे के फ्रेम में मढ़ कर
मैंने दिल के दीवारों  पे सजा रखे थे।
वहीं  से निकलती हैं
और भी कई अँधेरी सुनसान गलियां
जो पता नहीं कहाँ तक ले कर जाती हैं।
थोड़े ही और अंदर
कुछ ही दूरी पर
बह रही होती है एक नदी
प्रतिबिंबित करती हुई
आकाश का धुंधलका ....



















… बस मुझे बाहर खींच लो
अब मुझे एक पल भी यहाँ न रुकने दो
कहीं धुंधलके को चीड़ कर
सवेरा फिर से नदी में न चमकने लगे।
कहीं सूरज की कोई किरण
उस कब्रिस्तान को रौशन करने न निकल पड़े
मुझे डर लगता है
कि  रौशनी के किसी किरण के छूते ही
मेरे अंदर जो एक निर्वात है,
खालीपन है
मुझे महसूस होने लगेगा …


कई ख्वाब करवटें लेने लगेंगी
कई हसरतें जागने  लगेंगी
कुछ रिश्ते दिल के दरवाजे पर दस्तक देने लगेंगे

… मैं अपने अंदर फिर से जन्म लेने लगूँगा ।

मैं नहीं चाहता की की मेरी निगाहे
फिर से कोई ख्वाब देखे … फिर से उन्हें दफनाने के लिए;
मेरी हसरतों , उम्मीदों के नए पंख उग आए …
फिर से कट जाने के लिए;
मैं नहीं चाहता कि कोई रिश्ता मेरे दिल तक पहुँचे
फिर से टूट कर बिखर जाने के लिए।

… मैं अपने अंदर
जो मर हुआ सा कोई जिन्दा है
उसे फिर से जिन्दा करने से डरता हूँ ।
 

Thursday 16 October 2014

चाह


 वो जो मुझे नहीं
मेरे प्यार को पाना चाहे …
मुझे जानने भर में न उलझ कर
मुझे समझना चाहे…


Wednesday 15 October 2014

अतीत













काश कि जिन पन्नों में
तुम मेरा अतीत ढूंढते हो
उनमें तुमने कभी मुझे ढूंढा होता ....

मेरा वर्तमान तो तुम्हारा है  ही
फिर मेरे अतीत का भी तुम्ही लक्ष्य बन जाते। 



Sunday 12 October 2014

अहसास


एक अहसास
तेरे पास होने का
सिहरन
तेरी सांसों से छूने सा
खुशबू सी
हवा में यूँ फैल  गयी
चटक सा गया हो
कोई फूल अधखिला

जाने क्या था
वो झुकी पलकों सा
चाँद के पार चला
कोई पंछी मनचला
जैसे कुछ कहने सा 
वो पलक उठने सा

सूरज से, किरणों से
रौशन था  सवेरा
इधर से उधर -
यहाँ से वहां
तूँ जैसे फैल रही
मैं  तुम्हारा हूँ
जैसे तुम हूँ
तुम्ही हूँ।

Saturday 21 June 2014

चाँद और समकालीन सभ्यता

चाँद और समकालीन सभ्यता











मेरे मन!
तूँ किस पिछड़ी हुई सभ्यता का हिस्सा है ?
जो चाँद में तुझे अपनी माशूका का चेहरा दिखता है;
जो उसे घंटों इस हसरत भरी निगाह से देखता है की -
वह छोटा सा चाँद तेरी आँखों में उतर आये ;
जो उसकी मध्धम सी चाँदनी में तूँ डूब जाना चाहता है ;
जो सहम जाता है तूँ -
उसे किसी दैत्याकार प्राणी के मुँह में जाता जान
जब वह खेल रहा होता है कभी
बादलों से लुका -छुपी ।

      *        *       *

आज की समकालीन सभ्यता के लिए तो चाँद "संसाधनो का पिटारा" है।
असीमित पड़तजमीजमन  को निगल जाने की हसरत से देखती हैं
- "समकालीन सभ्य आँखें"।
तूँ क्यों नहीं देख पाता है -
चौंधिया कर रख देने वाली ऊर्जा की असीम संभावनाओं को ।
तूँ क्यों नहीं कल्पना कर पाता है-
उन आलीशान कारख़ानों से निकलते धुओं की
जो चादर की तरह ढँक लेने वाले हैं चंद्रमा को
जब समकालीन सभ्यता
उस तन्हा चाँद को अपने आगोश में ले लेगी।

Saturday 10 May 2014

उपासना

तुझे मेरे लिये नदी बनाना होगा प्रिये  !
उनका बहाव भी
और कल-कल स्वर भी ;
फूल भी
पत्ते भी
डालियाँ भी
और पूरा का पूरा पेड़ भी ;
घाँस भी
उनपर पड़ी ओस की  बूँदें भी
और उनमे प्रतिबिम्बित स्वर्ण रश्मियाँ भी;
रात भी
चाँद भी
और चांदनी भी ;
धूप  भी 
सूरज भी
उषा में  उसका आगमन भी
और संध्या में  उसका प्रस्थान भी ;
हवा भी
बादल  भी
और बारिश भी ;
पर्वत भी
उसकी ऊंचाई भी
और उसपर फैली बर्फ की चादर भी;
झील भी 
उसमे प्रतिबिम्बित दृश्य भी
और उस झिलमिल लय को तोड़ कर मुस्कराता कमल भी ;
और भी न जाने कितना कुछ
क्योंकि मैं इन सब रूपों में  आज तक तुम्हे ढूंढता आया हूँ।
क्योंकि इन सब रूपों में
मैं तुम्हारी उपासना  करना चाहता हूँ।

 

Monday 24 February 2014

बहता मन


सोंचता हूँ बहने दूँ मन को
इन मदमस्त हवाओं के साथ
के शायद खुद ढूँढ़ सके
कि यह क्या चाहता है।
के शायद कहीं इसके सवालों का
जवाब मिल जाये
के शायद कहीं इसके ख्वाबों को
पनाह मिल जाये
या फिर यह भूल कर
उन ख्वाबों  को
उन सवालों को
रम जाये नए नजारों में।
या घूम आए पूरी दुनिया
देख आये पूरी धरती का सौंदर्य
किसी निर्लिप्त मुसाफिर कि तरह। 
            .... और नहीं तो
बस लौट आये ऐसे ही ,
मैं समझ लूँगा
कि इसका कुछ नहीं हो सकता।

Thursday 13 February 2014

प्रेम का डेल्टा प्रदेश















तुमने ही तो मुझसे कहा था अनु ! माना कि मैं तुम्हारे track में न  पायी पर तुमने ही तो अपना पता लगने न दिया। माना की मैं इधर कुछ महीनों से थोड़ी ज्यादा बिजी हो गयी थी पर तुमने तुमने ही तो कहा था सेवा भाव से पूजा समझ कर अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिये ; और इधर तुमने ही ख़ुद तक पहुँचने के सारे रास्ते  बन्द कर लिये। पुराने दोस्तों से तुम्हारा कोई संपर्क नहीं है; घर वालों से तो तुम्हें पहले भी कोई मतलब नहीं था social sites पे भी तुम कभी नहीं रहे; पुराने office में भी कुछ खोज-खबर नहीं। तुम हो किस शहर में यह  भी तो पता नहीं चल पा रहा।  मैं काफी दिनों से महसूस कर रही थी कि तुम मुझसे कुछ खिंचे-खिंचे से रहते थे। पर अनु ! तुम ही तो थे जिसने मुझे हौसला  दिया था।

             कितने खुश थे तुम जब मेर result  आया था। और उस दिन भी जब मैं इंटरव्यू देने गयी  थी।  तुमने ही तो मुझे interview के लिये तैयार किया था। और जब offer  letter  आया था; मेरा दिल तो बैठा जा रहा था।  अपना शहर, अपना मुल्क छोड़ कर मैं कैसे रह पाऊँगी।  पर तुम तो तब भी काफी खुश थे।  कहा था " UNO  में इतनी अच्छी नौकरी, मन लायक काम, और रहना भी तो आस-पास ही है; यहीं indian subcontinent  में।  हम आपस में contact में रहेंगे। बीच-बीच में मिलते भी  तो रहेंगें। " पर मेरा मन तो तब भी  नहीं मान रहा था। पता नहीं कुछ डर सा लग रहा था कि काफी कुछ छूट जाएगा।किसी भी तरह से मैं तुमसे अलग होने के लिए खुद को मना नहीं पा रही थी। नया जगह! नए लोग! और फिर काम भी  तो कितना involving  था; मैं कितना आशंकित थी। मेरे मन में तो आया था कि क्यों इन पचड़ों में पड़ना; सब छोड़ कर यहीं सेटल हो  जाते हैं तुम्हारे साथ। उस दिन मैंने तुमसे लगभग यह कह भी तो दिया था। भले इस अंदाज में नहीं की तुम्हे कुछ जवाब देना ही पड़े। मगर तुम मुझे कितनी अच्छी तरह समझते थे अणु ! तुमने मेरे उस निवेदन को भी समझ लिया था और उसे खींच कर अचानक सतह पर लाने वाले डर को को भी।  तभी तो तुमने लौटते समय मेरे पर्स में  वो पर्ची  डाल  दी  थी ; जिसने मेरे future को यह shape  दिया।  कितने अधिकार से तुमने कहा था -



"
ओ री नदी !
तूँ मुझमें रीतने से पहले 
जग को हरियाली देती आना ।
     -         -          -

मुझे तेरे जल की प्यास नहीं 
तूँ मेरे लिए 
खाली हाथ ही आ 
तूँ हर तरह मेरी है 
बस हृदय में प्रेम लाना ।

     प्रेम :
- अहं का लोप 
- सीमाओं का घुल जाना 
- किनारों से परे विस्तृत होते चले जाना 
  और निर्माण एक डेल्टा प्रदेश का
  जहाँ जीवन झूमता हो 
  अपने अक्षुण्ण उमंग में । 

           -         -          -

तूँ  कृपणता छोड़ 
दोनों हाथों से उड़ेलती चल 
अपना शीतल जल,  अपना स्व
ताकि एक सुजलां- सुफलां धरा का निर्माण हो 
अपने मिलन क्षेत्र के परितः । 

                                                 -तुम्हारा  अनु 

(और हाँ मुझे खुद को सागर और  तुझे नदी बोलने का  कोई अधिकार नहीं है।  यह तो तेरा प्रेम और समर्पण ही  है की मैं  खुद को सागर मान  बैठा  )"
                              
                                  तो अनु! आज तुम उस प्रेम और समर्पण को कैसे भूल गए। कैसे भूल गए की मैं सदा -सदा से तुम्हारी हूँ। मैं जितना अपने प्यार को जानती हूँ उतना ही  तुम्हारे प्यार को भी। तुम मुझसे दूर नहीं रह सकते। देखो अनु ! तुम्हारी नदी तुमसे मिलने आई है ; बिल्कुल  खाली हो कर पर हाँ उसने सुजलां-सुफलां धरा  का  निर्माण किया  है। क्या तुम बाहें  खोल उसका स्वागत नहीं  करोगे।

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Images : courtsy google
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