Sunday 3 May 2015

वक़्त की कूची- जिंदगी के कैनवस



क्यूँ ठिठक सा गया वक़्त
मेरी जिंदगी के कैनवस पे
अपनी कूचियों से रंग भरते-भरते।

.... दूर आकाश में चमकते सितारों के
चकाचौंध सपने मैं  कहाँ मांगता हूँ-
धूसर मिटटी का रंग तो भर देते।

....  कहीं-कहीं मौके-बेमौके कुछ बारिश-
कुछ हरियाली,
सर के ऊपर एक अरूप आकाश
और आँखों के सामने कुछ दूरी पर
केशरिया क्षितिज ;
क्या इतना भी ज्यादा था?

              ---

हर अँधेरी रात के बाद
एक सुबह दिखने का
तुम्हारा ही तो वादा था।
.... तो क्या इस रात तुम खुद सो गए ?
या तुम उकता गए हो
इस लम्बी जिंदगी में
मिला-जुला एक सा ही रंग भरते-भरते ?

कुछ भी हो !
इस अँधेरी सुरंग में मैं और नहीं ठहर सकता।
मुझे इस सस्पेंडेड स्टेट से बाहर निकालो  ……
चाहे कैसा भी रंग भरो -
इस तस्वीर को ,
मेरी कहानी को
मुकम्मल तो करो।

Saturday 2 May 2015

           कविता के पाठकों का घटते जाना हाल के समसामयिक गोष्ठियों में चर्चा में बना रहता है। लोग चिंतित दिखते हैं की आज अभिव्यक्ति की बढ़ती सुगमता के साथ कविता के लिखे जाने और और उसके आम जान के दृष्टि फलक तक पहुँच में काफी इजाफा तो  हुआ है परन्तु उनकी गुणवत्ता में काफी ह्रास हुआ है और उस अनुपात में कविता के पारखी, उनको पढने-सुनने वालों और गुणने वालों की संख्या में बढ़ोत्तरी नहीं हुई है।  कारण चाहे जो भी हो, मेरा कथ्य यहाँ यह है की क्या समाज में कविता लिखे जाने की कोई उपादेयता नहीं है।

             यह सही है की सुज्ञ पाठक का एक बड़ा वर्ग होने से स्तरीय कवितायेँ और कवि उभर कर फलक पर आते हैं तथा उनका सम्मान होता है। इस तरह साहित्य भी समृद्ध होता है और समाज को एक दिशा भी प्रदान करता है।  ऐसी कवितायेँ पाठकों के अंतर को उद्वेलित कर एक सामाजिक आंदोलन खड़ा कर सकती हैं। किंतु यह सारा प्रभाव कविता के पढ़े जाने का है, तो उसके लिखे जाने के भी तो कुछ प्रभाव होंगे ?  यहाँ यह कहा  जा सकता है की कविता एक अभिव्यक्ति का माध्यम है और अभिव्यक्ति की पूर्णता तभी है जब कोई उसे ग्रहण करे।  किंतु यदि कविता के इस रूप(role) के विस्तार में कोई कमी आई है तो इसका कारण है की उसने हाल में उभर कर आये अभिव्यक्ति के कई नए माध्यमों को विस्तार के लिए जगह (space) दिया है  

             सोंचा जाए तो कविताओं का लिखा जाना भी स्वयं में एक वांछित तत्व है। हर काव्य व्यक्ति द्वारा स्वयं की पूर्णता की और बढ़ाया गया एक कदम है। हर एक कविता द्वारा वह अपने व्यक्तित्व और अपने अस्तित्व के अलग-अलग पहलुओं को समझने की कोशिश करता है। सृजन के वो क्षण , खुद के साथ समग्रता से बिताये गए वो क्षण , एकांत- एकाग्रता के वो क्षण व्यक्ति को अलग ही दुनियां में ले जाते हैं, जहाँ से वह अनुभूतियों की नदी में नहा कर - तरोताजा हो कर लौटता है। वहां से वह अपने साथ एक नयी सोंच भी लेकर आता है।  कभी वह वहां से एक सकारात्मक ऊर्जा ले कर आता है तो कभी अपनी नकारात्मकता से छुटकारा ले कर आता है। आज के इस व्यस्त भाग-दौड़  भरी जीवन प्रणाली में ऐसे क्षणों के महत्व को अनदेखा नहीं किया जा  सकता। ये क्षण व्यक्ति को मानसिक स्तर पर संतुलित बनाये रखने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।

            हम यहाँ खेल जगत से एक उदहारण ले सकते हैं। कोई भी खेल हो - मान लिया दौड़ , क्रिकेट , फुटबॉल या कुछ और। माना की स्तरीय खिलाडी बड़ी-बड़ी प्रतिस्पर्धाओं में मुकाम हासिल कर नए कीर्तिमान स्थापित करते हैं।  किन्तु क्या एक बच्चे द्वारा उस खेल में हिस्सा लेने का बस इतना ही महत्त्व है की एक दिन वह बड़ा खिलाड़ी बनकर अपना और देश का नाम रौशन करेगा। नहीं , उसका खेल में भाग लेना उसके सम्पूर्ण शारीरिक और मानसिक विकास के लिए आवश्यक है जो समाज की सुदृढ़ता के लिए भी वांछित है। इसी तरह कविताओं का लिखा जाना अपने आप में भले समाज में किसी अमूल -चूल परिवर्तन या क्रांति लेन में सहायक न हो किन्तु अपने व्यष्टिगत प्रभावों के द्वारा यह समाज के विकास में और उसको व्यवस्थित बनाये रखने में सहायता तो करता ही है। मायने की कविता के लिखे जाने का प्रसार भले ही काम वांछित हो पर वांछित तो है ही, और चिंता का विषय तो बिल्कुल नहीं है। 



Images : courtsy google
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